सुरेश हिंदुस्थानी एक कहावत है कि एक झूंठ को सौ बार प्रचारित किया जाए तो वह लगभग सत्य जैसी ही प्रतीत होने लगती है। भारत देश में लंबे समय से ऐसा ही कुछ होता दिखाई दे रहा है, जिसमें सच पर पर्दा डालने का कार्य किया जा रहा है। अभी हाल ही नई दिल्ली में भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक लाल किले पर कुत्सित मानसिकता वाले उपद्रवियों ने जो उत्पात मचाया, उसकी देश एक स्वर से निंदा कर रहा है, लेकिन कुछ समाचार चैनल आज भी यही प्रचारित कर रहे हैं कि वे किसान हैं और जो हिंसा हुई है, वह पुलिस ने की है, जबकि वीडियो क्लिपिंग में यह साफ दिखाई दे रहा था था कि ट्रैक्टर चालकों का उद्देश्य क्या था? वे पुलिस को चपेट में लेने के लिए उतावले थे। इतना ही नहीं उन्होंने पुलिस को पीटा भी। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि मार खाने की भी एक सीमा होती है। ऐसा लगता है कि देश के मीडिया को यह सब नहीं दिखा। सांस्कृतिक वातावरण से कोसों दूर जाने वाली हमारे देश की जनता भी इस झूंठ को सत्य मानने के लिए विवश हो जाती है। इसके परिणाम स्वरुप समाज के समक्ष गंभीर चेतावनी फन उठाकर खड़ी हो जाती हैं। लेकिन लम्बे समय बाद जब सत्य सामने आता है